Sunday, May 10, 2020

No Lockdown Blues --- Ram Charit Manas, Bal Kand1, Part-1

Never ever in the known history of humankind, have we experienced, something like this, that the whole humanity(Big word) I know, "the whole humanity" has been held ransom by a Virus called Covid-19. Everyone is in lockdown. We are all indoors and hoping it would go away as no Vaccine or cure has been in sight.

That hasn't stopped the spirited souls from living their lives. Musicians are organizing online concerts, Actors are making shot-from-home short movies, Painters are holding online exhibitions of their paintings. Teachers and students are busy in online classes. Scores of others are busy in gaining online Certifications and improve their knowledge.

The other day, Doordarshan, started a repeat telecast of 'Ramayan', a Super-hit serial of the 90's. It got me thinking and rather prompted me to do, what I have been procrastinating for a while. Recite Ram Charit Manas with Hindi translation. So I started the RamCharit Manas Paath with Hindi translation, word to word, just as Tulsidasji wrote it.

Here is the first Video in the series.

https://youtu.be/i-ykR2pmcJ8


श्री राम चरित मानस

श्री गणेशाय नमः
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
श्री रामचरित मानस
 प्रथम सोपान (बालकाण्ड)
 श्लोक
वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मङ्गलानां कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ


भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
 याभ्यां विना पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्


वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते
सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।
 वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कबीश्वरकपीश्वरौ
 उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
 सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम् ॥रामवल्लभाम्
 यन्मायावशवर्तिं विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम् ॥हरिम्

यन्मायावशवर्तिं विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
 यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम् ॥हरिम्

नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा
भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति

सो. जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन
 मूक होइ बाचाल पंगु चढइ गिरिबर गहन ।


जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन
नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन।
 करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन

कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन।
जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन


बंदउ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
 महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर

बंदउ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा
 अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू
सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी
 श्रीगुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य द्रृष्टि हियँहोती
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के
 सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँजो जेहि खानिक


दो. जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान


गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन
 बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना
सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी
साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा
मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू
राम भक्ति जहँसुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा
 बिधि निषेधमय कलि मल हरनी। करम कथा रबिनंदनि बरनी
 हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी
 बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा
 सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा

अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ
 दो. सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग

मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई
बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी
 जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँजेहिं पाई
सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद आन उपाऊ
बिनु सतसंग बिबेक होई। राम कृपा बिनु सुलभ सोई
 सतसंगत मुद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला
 सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई
 बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं
बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी
सो मो सन कहि जात कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें

दो. बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ।
 अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ ()

संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
 बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु ()

बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें
हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से
जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी
तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा
उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके
पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं
बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा
 पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना
बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। संतत सुरानीक हित जेही

बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा
 दो. उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति

मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर लाउब भोरा
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा
बंदउँ संत असज्जन चरना। दुखप्रद उभय बीच कछु बरना
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं
उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं
 सुधा सुरा सम साधू असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू
भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू
गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई

दो. भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
सुधा सराहिअ अमरताँगरल सराहिअ मीचु

खल अघ अगुन साधू गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा
 तेहि तें कछु गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग बिनु पहिचाने
भलेउ पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए
कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना
दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती
 दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू
 माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा
 कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा
सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा

दो. जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
 संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार

अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता
काल सुभाउ करम बरिआई। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाई
 सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू। मिटइ मलिन सुभाउ अभंगू
 लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ
 उधरहिं अंत होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू
किएहुँ कुबेष साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू
हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू
 गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा
 साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारी
धूम कुसंगति कारिख होई। लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई
सोइ जल अनल अनिल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता

दो. ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।
 होहि कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग ()

सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।
ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह ()
जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।
 बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि ()
देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब।
 बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब ()

आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी
सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी
जानि कृपाकर किंकर मोहू। सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू
 निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं। तातें बिनय करउँ सब पाही
 करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा
सूझ एकउ अंग उपाऊ। मन मति रंक मनोरथ राऊ
मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ छाछी
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई
जौ बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता
हँसिहहि कूर कुटिल कुबिचारी। जे पर दूषन भूषनधारी
 निज कवित केहि लाग नीका। सरस होउ अथवा अति फीका
जे पर भनिति सुनत हरषाही। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं
जग बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढ़ि बढ़हिं जल पाई
सज्जन सकृत सिंधु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई

 दो. भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास।
पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करहहिं उपहास
.....

मासपारायण, पहला विश्राम

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